January 12, 2025

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जीन प्याजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत

संज्ञान क्या है ? जीन प्याजे ने संज्ञान के बारे में बताते हुए ये कहा की “संज्ञान व्यक्ति/बालक वह ज्ञान है जिसे वह वातावरण /बाह्य जगत या अपने उद्दीपको से ग्रहण करता है | ”

जीन प्याजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत

Cognitive Development Theory of Jean Piaget

प्रवर्तक : जीन प्याजे (Jean Piaget)

जीन प्याजे स्विट्जरलैंड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे , जीन प्याजे ने ही सर्वप्रथम मनोविज्ञान में संज्ञानात्मक पक्ष के बारे में क्रमबद्ध व वैज्ञानिक अध्ययन किया था |

संज्ञान क्या है ?

जीन प्याजे ने संज्ञान के बारे में बताते हुए ये कहा की “संज्ञान व्यक्ति/बालक वह ज्ञान है जिसे वह वातावरण /बाह्य जगत या अपने उद्दीपको से ग्रहण करता है | ”

शिशु जैसे –जैसे बड़ा होता , अपने वातावरण के साथ अंतक्रिया करता है जिससे उसके संज्ञान का विकास होता है |

जीन प्याजे ने बालक के विकास के लिए संज्ञानात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया , और इसी का अध्ययन करते हुए जीन प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत का प्रतिपादन किया , इसीलिए जीन प्याजे को विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है |

विकासात्मक मनोविज्ञान – मनोवज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक होने वाले विकास का अध्ययन किया जाता है |

बालक का विकास गर्भावस्था से प्रारंभ हो जाता है. लेकिन उसका संज्ञानात्मक विकास जन्म के पश्चात ही प्रारंभ होता है , अर्थात शिशु अवस्था में जो जीवन भर चलता रहता है |

जीन प्याजे के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाऐ

  1. संवेदी –पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage )

  2. पूर्व – संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage)

  3. मूर्त /ठोस संक्रियात्मक अवस्था (Concrete –Operational Stage)

  4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage)

संवेदी –पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage )

आयु (0 -2 वर्ष )

जन्म के समय शिशु को बाह्य जगत का कोई ज्ञान नही होता है , लेकिन आयु वृद्धि के साथ साथ अपनी संवेदी अंगो (ज्ञाननेंद्रियो) के मध्यम से वातावरण का ज्ञान ग्रहण करता है | इसीलिए ज्ञानेन्द्रियो को सीखने का द्वार कहा गया है |

शिशु वस्तु को देख कर ,सुनकर ,स्पर्श कर ,सूंघ कर(गंध द्वारा) ,तथा स्वाद के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है |

इस अवस्था में शिशु छोटे –छोटे शब्द को बोलना सीखता है,, अपना पहला सार्थक शब्द को बोलने में बालक को कम से कम 12 माह का समय लग जाता है  दुसरे शब्दों में कहा जाये तो एक वर्ष का बालक अपना सार्थक शब्द बोलने लग जाता है |

इस अवस्था के प्रारम्भ में वस्तु का स्थायित्व नही पाया जाता है लेकिन इस अवस्था के अंत तक वस्तु स्थायित्व का भाव जागने लग जाता है अर्थात छिपी हुई वस्तु खोज करता है , इसलिए इस अवस्था को खोजी अवस्था भी कहा जाता है |

 

पूर्व – संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage)

 आयु (2-7 वर्ष )

इस अवस्था को दो भागो में बंटा गया है |

  1. प्राक सम्प्रत्यात्मक अवधि (Pre-Conceptual Period )

  2. अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period )

प्राक सम्प्रत्यात्मक अवधि (Pre-Conceptual Period )

आयु अवधि -(2-4 वर्ष)

इस अवधि के दौरान बालक में होने वाले संज्ञानात्मक विकास और उनसे सम्बंधित क्रियाऐ निम्न है |

  • अनुकरण (Imitation) – छोटे बच्चे अपने माता- पिता , भाई –बहनों को जो कुछ करते देखते है , बाद उनके जैसे ही क्रिया करते है
  • प्रतिमूर्ति निर्माण (Image Formation)– इसके अंतर्गत बच्चे प्रतिबिम्ब का निर्माण करते है जैसे –गुड्डे या गुडिया को भाई या बहन समझना |
  • जीववाद (Animism) निर्जीव वस्तुओ को सजीव मानना या सजीवो के समान भावना देना , जैसे – खिलोंनो को खाना खिलाना ,सूरज आज रो/हस रहा है आदि |
  • आत्मकेन्द्रिता (Egocentrism)– इस उम्र में बालक अहमवादी होता है , सिर्फ स्वयं की बात करेगा , दुसरो को कम महत्व देगा | क्यों की इस आयु तक बालक दुसरो के नजरिये को समझने में असमर्थ होता है |

अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period )

आयु अवधि -(4-7 वर्ष)

ये अवस्था बालक के प्रश्न पूछने की अवस्था होती है , इस अवस्था में बालक अपने अन्दर उठने वाले सभी प्रशनो के जवाब चाहता है | इस अवस्था में बालक को लिखना ,गिनती गिनना , हल्का भारी का ज्ञान , घर के काम में मदद करना,वस्तुओ का क्रम ,जोड़ – बाकी,गुणा –भाग का ज्ञान होने लग जाता है |

लेकिन तर्क –वितर्क की योग्यता का निर्माण नहीं होता है इसलिए इसे अतार्किक चिंतन की अवस्था भी कहते है |

इस आयु में बालको में अनुउत्क्रमणशीलता (Irreversibility)  पाई जाती है , इसलिए इसे अपलटावी अवस्था भी कहते है |

अनुउत्क्रमणशीलता (Irreversibility) – बालक घटनाओ के क्रम को उल्टा नहीं समझ सकते है , उदाहरणतया बालक को दो बीकर(एक लम्बा और एक चौड़ा) में जल भर के दिया जाता है और यदि जल की मात्रा समान है तो भी बालक जिस बीकर में जल का स्तर ज्यादा है उसे अधिक जल वाला समझेगा , यदि जल को अन्य तीसरे बीकर में डाल कर उसकी समान मात्रा दिखाई जाये और पुनः दोनों बीकरो (लम्बा ,चौड़ा) में जल की मात्रा के बराबर होने को समझायेंगे तो बालक को समझ में नही आयेगा , क्यों की इसमें जो घटनाओ क्रम (जल का एक बीकर से दुसरे बीकर में डालना) बदल रहा है ,उसे बालक समझ नही सकता क्योकि बालक में अभी तक उत्क्रमणशीलता (reversibility) की क्षमता विकसित नहीं होती है|

मूर्त /ठोस संक्रियात्मक अवस्था (Concrete –Operational Stage)

आयु अवधि -(7-11 वर्ष)

ये बालक के तार्किक चिंतन की अवस्था है , इस अवस्था में तार्किक चिंतन प्रारंभ हो जाता है लेकिन बालक का चिंतन केवल प्रत्यक्ष/मूर्त वस्तु तक ही सिमित होता है |

इस अवस्था में बालक वस्तुओ की तुलना करना , सही गलत ,समानता –असमानता करना सीख जाता है लेकिन ये अंतर जो वस्तु सामने है उन्ही के मध्य कर सकता है , इसलिए इस अवस्था को मूर्त /स्थूल /ठोस चिंतन की अवस्था कहते है

इस अवस्था में बालक में उत्क्रमणशीलता (reversibility) पाई जाती है , इसलिए यह पलटावी अवस्था है |

ठोस चिंतन की अवस्था में भाषा ,सम्प्रेषण में कुशलता, दिन,तारीख,महिना,साल ,समय बताने की समझ भी विकसित हो जाती है ,इसके साथ साथ बालक में तर्क ,जिज्ञासा, निरिक्षण क्षमता का विकास हो जाता है |

आत्मकेन्द्रीयता का भाव छोड़ कर दुसरे के द्रष्टिकोण को महत्व देना प्रारंभ कर देते है |

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage)

आयु अवधि -(11 वर्ष के पश्चात)

इस अवस्था में मानसिक क्रियाओ का पूर्ण विकास हो जाता है |

इस आयु अवस्था के साथ बालक किशोर अवस्था में प्रवेश करने लग जाता है , किशोरों में मूर्त चिंतन के साथ- साथ अमूर्त चिंतन भी प्रारंभ हो जाता है , इसलिए यह अवस्था तार्किक चिंतन की अवस्था कहलाती है |

किशोरो में तार्किक चिंतन क्षमता बढ़ने से किशोर समस्या उत्पन्न होने पर तर्कपूर्ण व क्रमबद्ध विचार करते हुए समस्या का समाधान ढूंढता है , जिसे परिकल्पनात्मक निगमनात्मक तर्कणा कहा जाता है |

जीन प्याजे का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

  • जीन प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत का प्रतिपादन किया |
  • बालकेंद्रित शिक्षा पर बल दिया |
  • जीन प्याजे ने एक शिक्षक की भूमिका को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है , प्याजे के अनुसार शिक्षक को बालक की हर समस्या का समाधान करना चाहिए ,और अधिगम का उचित वातावरण तैयार कर के देना चाहिए ,

जीन प्याजे ने शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नए शब्दों का प्रयोग किया

1. स्कीमा

स्कीमा जीव विज्ञान से सम्बन्धित शब्द है , वातावरण द्वारा अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान का संगठन ही स्कीमा है | बालक के मस्तिष्क में जो चीजे या ज्ञान है उसकी के आधार वह नई वस्तु के प्रति धारणा बनता है |

जैसे यदि एक बालक एक उड़ने वाले पक्षी को देखता है तो हम बताते है यह एक चिड़िया है तो बालक यदि किसी दुसरे पक्षी जैसे (कबूतर , कौआ) को देखेगा तो भी उसे चिड़िया बोलेगा , क्यों की उसके दिमाग में ये विचार स्थित है दो पैर है , पंख है उड़ता है तो वो चिड़िया है |

बालक जो अलग अलग पक्षी को चिड़िया बताता है “स्कीमा” कहलाता है |

2. अनुकूलन

वातावरण के साथ समायोजन का तरीका होता है ,

इसके अंतर्गत तीन क्रियाये होती है

  1. आत्मीकरण /समायोजन (Assimilation): समस्या समाधान के लिए अपने पूर्व अनुभवों ,विचारो तथा अवधारणाओं का सहारा लेना पड़ता है |
  2. संमजन /समायोजन (Accommodation): अपनी पूर्व अनुभवों व अवधारणाओं में परिवर्तन करके नये वातावरण के साथ संयोजन स्थापित करना |
  3. संतुलन /साम्यधारण (Equilibration) : ऐसी प्रक्रिया जिसके द्वारा आत्मीकरण व संमजन के बीच संतुलन स्थापित किया जाता है अर्थात पुराने विचारो तथा तथा नई धारणाओं के बीच संतुलन स्थापित करना |
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